February 8, 2009

ग़ालिब to be continued...

"गा़लिब" बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहें जिसे 


तू ने क़सम मैकशी की खाई है "ग़ालिब"
तेरी क़सम का कुछ ऐतबार नहीं है

हम ने माना के तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम तुम को ख़बर होने तक 


इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई

इशरते कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुजरना है, दवा हो जाना

"ग़ालिब" तुम्हीं कहो कि मिलेगा जवाब क्या
माना कि तुम कहा किये और वो सुना किये 


इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बेदवा पाया


आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से
कहने जाते तो हैं, पर देखिये क्या कहते हैं

मौत का एक दिन मु'अय्याँ है
नींद क्यों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

1 comment: