February 9, 2009

नाज़िम हिक़मत की कविताएं

1.आओ, वह बोली
और रुको, वह बोली
और मुस्काओ, वह बोली
और खपो, वह बोली ।
मैं आया
मैं रुका
मै मुस्काया
मैं खपा ।

2.सुन्दरतम सागर है वह
जिसे देखा नहीं कभी हमने
सुन्दरतम बच्चा
अभी बड़ा नहीं हुआ
सुन्दरतम दिन अपने
वे हैं जिन्हें जिया नहीं हमने अभी
और वे बेपनाह उम्दा बातें, जो सुनाना चाहता हूँ तुम्हें मैं
अभी कही जानी हैं


3.घुटनों के बल झुका देख रहा हूँ धरती
देख रहा हूँ नीली चमकती कोंपलों से भरी शाखाएँ
वसन्त भरी पृथ्वी की तरह हो तुम, मेरी प्रिया !
मैं तुम्हें ताक रहा हूँ ।

चित्त लेटा मैं देखता हूँ आसमान
तुम वसन्त के मानिन्द हो, आसमान के समान
प्रिया मेरी! मैं तुम्हें देख रहा हूँ । गाँव में, रात को सुलगाता हूँ आग मैं, छूता हूँ लपटें
तारों तले दहकती आग की तरह हो तुम
प्रिये! मैं तुम्हें छू रहा हूँ ।

इन्सानों के बीच हूँ, प्यार करता हूँ इन्सानियत को
मुझे भाती है सक्रियता
मुझे रुचते हैं विचार
प्यार करता हूँ मैं अपने संघर्ष को
मेरे संघर्षों के बीच इन्सान हो तुम, मेरी प्रिया!
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ ।



4.मैं क़िताब पढ़ता हूँ
तुम उसमें हो
गीत सुनता हूँ
तुम उसमें हो
खाने बैठा हूँ रोटी
तुम बैठी हो सामने
मैं काम करता हूँ
तुम वहाँ मौज़ूद हो

हालाँकि हाज़िर हो तुम सभी जगह
बात नहीं कर सकती तुम मुझ से
सुन नहीं पाते हम आवाज़ एक-दूजे की


5.वह क्या कर रही होगी अभी
अभी, इस क्षण, अभी !

घर में या बाहर कहीं
काम कर रही है झुकी या खडी हुई है ?
शायद अंगड़ाई ले रही हो--
ओह मेरी प्रिया !
ऐसा करते हुए
कितनी नंगी दिखने लगती हैं उसकी पुष्ट कलाइयाँ

वह क्या कर रही होगी अभी
अभी, इस क्षण, अभी !

शायद सहला रही हो
गोद में ले बिल्ली के बच्चे को ।
शायद टहल रही हो, उठा रही हो अगला क़दम--
आह, वे ख़ूबसूरत पाँव
जो उसे लाते थे मुझ तक उड़ाते हुए
जब-जब मैं डूबा अंधेरे में ।

और सोच रही है क्या वह भी मेरे बारे में ?
क्या मेरे बारे में सोच रही है वह भी इस समय
या कि हैरान-परेशान है वह यह सोच-सोच कर
(छोड़ो, क्या पता)
कि छीमियाँ पकने में इतनी देर क्यों लगती है ?
या कि शायद यह कि इतने लोग क्यों हैं
अब भी इतने दुखी ?

क्या सोच रही होगी वह
अभी, इस क्षण, अभी


6. पेटी से निकालो वह घाघरा

जिसमें मैंने देखा था तुम्हें पहली बार,
और बालों में लगाओ वह कारनेशन
जो तुम्हें भेजा था मैंने जेल से
चाहे जितना बिखरा, मुरझा चुका हो ।
सँवरो और खिली दिखो
आदमकद वसन्त-सी ।

आज के रोज़ दिखना नहीं चाहिए तुम्हें
खोई-खोई ग़मगीन
किसी हाल में !
आज के दिन
तुम्हें निकलना चाहिए सर ऊँचा किए हुए
गर्वोन्नत
गुज़रना ही चाहिए तुम्हें नाज़िम हिक़मत की
पत्नी की गरिमा से भर के ।

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