July 29, 2016

ज़िद्दी परिंदा

बढ़ता पेट
घटता रेट
ज़ालिम सेठ

नींद बेवफ़ा
सपने सफा
उम्मीद रफा-दफा


हाथ में कंपन
पैर में झनझन
दिमाग में सनसन

पर

सोच है ज़िन्दा
ज़िद्दी परिंदा
बेपरवाह बाशिंदा
 
उड़ चला

आसमां
को
करने शर्मिंदा

July 28, 2016

कविता मेरी

दिल में जन्मी
बाज़ार में दम तोड़ गई
कविता मेरी

तू

किस्सा था
कहानी थी
याद नहीं

बचपन था
जवानी थी
याद नही


याद है
बस इतना

तू पास नहीं
तेरे आने की कोई
आस नहीं

July 27, 2016

फ़ितरत

ऑटो में बैठा तो
पैदल चलने वालों को हिकारत से देखा
कार में बैठ के ऑटो वालों पे गुस्सा आया
पैदल चला तो कार वाले को गाली दी

शुक्र है सड़कों पे जहाज़ नहीं चलते
वर्ना क़त्ल कर देता किसी का
जहाज़ में बैठ कर

July 11, 2016

काश......

कहीं घुमते-फिरते दिख जाता है कोई नया भूखंड
या कोई नया परिदृश्य या स्थान
तो लगता है ऐसे
कि
पा लिया सारा जहां
जीत ली सारी दुनिया

हालाँकि उन सभी भूखंडों परिदृश्यों-स्थानों पर
पड़ चुके होते हैं किसी के पाँव
पड़ चुकी होती है किसी की नज़र

और मैं उन जगहों पर चालाकी से अपने अकेले को
तस्वीर में कैद करके होता हूँ खुश
जैसे मैं ही हूँ 'पहला'
वहाँ कदम रखने वाला
जैसे मेरी नज़र ने ही देखा है वो नज़ारा सबसे 'पहले'

सोचता हूँ कि वास्कोडिगामा, कोलंबस
या उन्ही की तरह के कई दुर्लभ प्राणियों
को लगा होगा कैसा
जब सच में उन्ही के
कदम होंगे 'पहले'
किसी वर्जिन भूखंड को छूते हुए
उन्ही की नज़र होगी 'पहली'
किसी परिदृश्य का घूंघट उतारती हुई
उन्ही ने सूंघी होगी वहाँ की मिट्टी 'पहली' बार

उफ्फ... क्या फीलिंग होगी वो
लाख महसूस के भी महसूस नहीं सकता

काश..इस जनम में देख-छू-महसूस पाऊं
एक टुकड़ा इस जहां का
जहां ना पड़ी हो किसी की नज़र
ना छुएं हों कोई पाँव

काश...मैं भी वास्कोडिगामा हो जाऊं 
एक नितांत छोटे से भूखंड का

फिर भले ही वो हो मेरी कब्र
जहां का मैं ही होऊं 'पहला' बाशिंदा
काश....