December 31, 2009

प्लीज़-अश्वनी

उथल पुथल कर दूं सब
पटक पछाड़ दूं सब
राख कर दूं
ख़ाक कर दूं
आग लगा दूं
मिटा दूं जो था अब तक
इस समय है जोश पूरा
खो रहा हूँ होश थोड़ा
सांस ही है साथ मेरे
कोई नहीं है पास मेरे
पास अँधेरे ,दूर सवेरे
सांस की बस थाम डोर
मैं चला अनजान छोर
रात मिलेगी या कि भोर
खुद की बात,खुद की रात,खुद का हूँ मैं खुद ही चोर
यह मेरे दिल का बवंडर ,दिल ही खाली ,दिल समंदर
दिल ही चोर,दिल की भोर,दिल ही ओर,दिल ही छोर
दिल ही दिल्ली,दिल बम्बई,दिल कोल्कोत्ता,दिल बंगलोर
क्या करूं मैं अपना,उसका,इसका,तेरा,सबका....
एक दिल,एक जान....
टंटे लाखों,लफड़े हज़ार
मुझे माफ़ करो
एक लाइफ दे दो ना सीदी सादी सी
प्लीज़
प्लीज़
प्लीज़
थंक उ

November 28, 2009

मुहावरे-अश्वनी

बेकार चीज़ फेंक देना होता है सही...
ऐसा सुनते आए अब तक...
पर जब शब्द अर्थ खोने लगें तो क्या करें ...
ज़ाहिर है फेंक दो उन्हें अंधी खाई में...
ऐसे कुछ शब्दों से बने मुहावरे खो चुके हैं अर्थ...
पर कुछ लकीर के फकीर करते हैं उनका उपयोग गाहे-बगाहे...
उदाहरणार्थ वो कहते हैं 
झूठ के पाँव नहीं होते...
पर अक़्सर नज़र आते  हैं कई झूठ, कई तरह की दौड़ों में अव्वल आते हुए..
सांच को आंच नहीं...
पर सच जला-बुझा सा कोने में पड़ा मिलता है अदालतों में...
भगवान के घर देर है...अंधेर नहीं..
पर भगवान ख़ुद अमीरों की इमारतों में उजाला करने में है व्यस्त
सौ सुनार की, एक लोहार की...
पर आज के बाज़ार ने लोहार को गायब कर दिया बाज़ार से...
न नौ मन तेल होगा...न राधा नाचेगी..
पर राधा मीरा नाच रहीं चवन्नी-अठन्नी पर किसी सस्ते बार में...
चैन की नींद सोना...
पर मेरे बूढ़े पिता रिटायर होने के बाद जागते हैं उल्लुओं की तरह... 
अनिष्ट की आशंका में...
ये मुहावरे मिटा डालो 
फाड़ो वो पन्ने जो इनका बोझ ढो के बोझिल हो चुके.. 
निष्कासित करो उन लकीरी फकीरों को..
जो इनके सच होने की उम्मीद लगाए बैठे हैं...

November 22, 2009

दुविधा-अश्वनी

काफ़ी देर तक कलम लिए हाथ में रहा बैठा
लिख ना पाया अक्षर एक
इतने सारे विचारों में से लिखने लायक विचार ढूँढना होता है मुश्किल
पर कभी होता है आसान बहुत
ज़िद करके कलम उतार दी कागज़ की ज़मीन पर
जब उठाई कलम तो कुछ आड़ी तिरछी रेखाओं के इलावा कुछ न था
लेखक से चित्रकार भला
उसे सुविधा है की वो आड़ी तिरछी रेखाओं से होते हुए पहुँच जाता है वहां
जहाँ लेखक को पहुंचना होता है केवल शब्दों के पुल पर
पता नहीं मेरी यह बात आपको कितनी ठीक लगेगी
पर मेरे दिल में आई और मैंने कह दी
वैसे भी आज लिखना बहुत मुश्किल लग रहा है
हाँ बातें करने का बहुत मन है
किसी के साथ

November 19, 2009

यूँही ही-अश्वनी

इतने लोग ...
इतनी बातें...
इतनी जिंदगानियां॥
इतनी सोचें...
इतने किस्से...
इतनी कहानियाँ॥
जितने लोग
उतनी बातें
उतनी सोचें
उतने ही किस्से
उतनी कहानियाँ
चल ढूंढे आज कहीं थोड़ी जिन्दगानियां भी॥

October 27, 2009

पाना खोना-अश्वनी

पाना नही है कुछ..
पा के पाते रहना है कुछ कुछ...
पा के खो देना है बहुत कुछ..
खो के पा लेना है सब कुछ

October 21, 2009

यात्रा-अश्वनी

बिना मंजिल के कोई सफर हो....
अजनबी सा एक हमसफ़र हो...
राह इतनी दुशवार हो की रस्ता ना सूझे...
कुछ के मिले जवाब,कुछ सवाल रहे अबूझे॥
भटकते रहे ख़लाओं में...
मांगे बादल हवाओं से पर प्यास ना बुझे कभी...
चाँद से मिले रोशनी पर रात न ढले कभी॥

October 14, 2009

दिल-अश्वनी

मना मना के दिल ये हारा
माने ना दिल आवारा
दिल
की बात है
दिल थाम ले
दिल से सुन ले यारा

September 5, 2009

एक विचार-अश्वनी

सोच की सोच बड़ी
उल्टे पलटे जूझे पछाडे और कभी काबू काबू
कदम मिला के साथ कभी और कभी बेकाबू...
घी मिश्री सी घुल जाए मुंह में
कभी कड़वी निम्बोली सी
वाचाल बातूनी रहे बनी कभी
कभी मुंह सिल अनबोली सी...
कभी ये मन का मौसम बदले
बन के एक ठंडी हवा
छाले डाले आत्मा पे कभी
कभी जिस्म को कर दे तपता तवा...
कभी लगे यह मेरी है
कभी मेरी होने में देरी है
कभी मालिक बन बैठे
कभी जीवन भर की चेरी है...
जैसी भी है,जो भी है
बस साथ रहे
ना होगी ये तो मेरी हस्ती क्या
बिन मल्लाह कश्ती क्या
बिन इंसा बस्ती क्या
सोच है तो मस्त रहता हूँ
बिना सोच के मस्ती क्या...

July 18, 2009

खुशबू-अश्वनी

मेरे अहसास साँस साँस साथ
जीवन चक्र का चक्का घूमे
धरती डोले आकाश चले पलकों तले
प्यास बुझे भड़के संग संग
दिल जले धड़के संग संग
रात शाम तड़के संग संग
संग संग इक रहने लगी हर पल संग संग
अंग अंग लग के अर्धांगिनी बनी
संग संग चल के बनी संगिनी
रंग रंग रंग के बनी रंगिनी
भोर की नमी अब रहती है थमी दोपहर तक
दोपहर की आंच रखता हूँ बांच शाम तक
शाम की लाली बन के हरियाली मिलती है रात को
रात का चाँद रहता है मांद भोर तक
रात शाम दोपहर भोर
इन सब के ओर छोर छाते हैं पोर पोर
फूटती है एक आभा नई
मेरे रंग खिल गए कई
सात रंगों में समा जाऊं ऐसा धनुष नही मैं इन्द्र का
मैं हूँ हज़ार रंग
बस रंगिनी संग

June 4, 2009

माधवी-अश्वनी

मेरी धड़कन... धड़क रहा हूँ
मेरी चाहत ... चहक रहा हूँ
मेरी तड़पन ... तड़प रहा हूँ
मेरी आवाज़... सुन रहा हूँ
मेरी कोशिश ... कर रहा हूँ
मेरी नींद ... सो रहा हूँ
मेरी खुमारी ... खो रहा हूँ
मेरी हलचल ... हिल रहा हूँ
मेरी अदा ... निहार रहा हूँ
मेरे चैन ... पा रहा हूँ
मेरे बेचैन ... हो रहा हूँ
मेरे सपने ...देख रहा हूँ
मेरी साँस ..पी रहा हूँ
मेरी ज़िन्दगी...जी रहा हूँ

May 31, 2009

माधवी मेरी मीरा मेरी-अश्वनी

किसी एक तारीख के इंतज़ार में रोज़ रोज़ तारीखें देखना भी एक अजीब सा सुख देता है॥
हर गुज़रती तारीख के साथ मेरा इंतज़ार कम होने की बजाए बढ़ रहा है।
इतनी आकुल व्याकुल अव्यवस्थित चंचल बेचैन दशा मन की कभी ना थी
बहुत इंतज़ार के बाद यह इंतज़ार के दिन आए
साल भर के सारे मौसम देख लेता हूँ कुछ पल में अगर चाहूँ तो आजकल
कोई एक इंसान कैसे आपके रात दिन सुबह शाम गर्मी सर्दी प्रभावित करने लगता है
यह देखना महसूस करना कोतुहल का विषय है मेरे लिए
मैं ज्यादातर आश्चर्यचकित ही रहता हूँ आजकल
मेरे जीवन में इन्दरधनुष लाने वाली ,मेरी सोच को हर्षाने वाली वो
माधवी
मेरी पत्नी बनेगी २६ जून को
और मैं उसका पति
वाह ज़िन्दगी ........

May 21, 2009

पिघला है कुछ भीतर-अश्वनी

भूरे शीशे से छन कर आती दोपहर शाम सी लगती है
और घर के अन्दर की शाम उसी शीशे से बाहर जा के दोपहर हो जाती है
अब शीशे मौसम को बदल रहे हैं
मेरे दिल का मौसम किसी के ख्याल आने पे या न आने पे बदल जाता है
मेरे दिल का शीशा पिघला दिया किसी ने
मैं जल्द ही अपने घर का शीशा भी तोड़ दूँगा
या कोई आ कर पिघला देगी उस शीशे को भी अपनी एक छुअन से
ऐसा नही की उसके छूने से सिर्फ़ शीशा पिघलता है
मेरा अंहकार भी गल जाता है उसके छूते ही

May 19, 2009

उसका नाम-अश्वनी

मेरे भीतर एक समंदर है जो लहर लहर स्पंदित होता है तेरी हर छुअन से ,
तेरी छुअन के निशान दिखाई देते हैं दिल की हर परत पे
दिल के भीतर की सबसे भीतरी परत में एक मोती है
मेरा दिल एक सीप है
धीरे से सीप खोल वो मोती मैंने मुँह में रख लिया
कुछ पल को लगा चाँदनी घुल गई मेरे मुख में

यह अहसास जो चल के आया है तेरे पास से मेरी ओर
अनोखा है
हर शब्द में तेरा अक्स छुपा है मेरे
शब्द एक नवेली दुल्हन से किलकिल करते हैं घूंघट के तले
गर्म साँसों से मेरी घूंघट तेरा हिल रहा है थोड़ा थोड़ा
कुछ शब्द चहक चहक फिसले इधर उधर घूंघट से
मैंने एक एक शब्द उठा के अपनी आँखों से रखा अपने होंठो पे
मेरे होंठों पे एक नाम उतर आया
माधवी......

March 22, 2009

हाईवे नो वे-अश्वनी

भीगे फर्श पे फिसला करते थे बारिश में..
पर कभी गिरे नही..
सूखी सड़क पे गिर गिर के चल रहे है अब..
सड़क पे पड़े टिन के डब्बों को ठोकर से उड़ाया करते थे..
दूर तक खड़ खड़ की आवाज़ करते जाया करते थे डिब्बे..
आवारा कुत्ते अलसाए से गर्दन घुमा के देखा करते थे आवाज़ की दिशा में..
कोई उत्साही कुत्ता भोंक भी पड़ता था कभी कभी..
अब टिन के डिब्बे में बैठ के सड़क पे पड़े छोटे पत्थरों को टायर से कुचल के निकल जाते हैं..
सड़क एक कॉमन फैक्टर है...चाहे किसी भी शहर की हो..
मेरे शहर की सड़कें तंग गलियों सी थी..
गलियों गलियों होते हम किसी छोटी सड़क तक पहुँच जाते थे..
सड़क के किनारे किनारे चल के हम फिर से किसी गली में घुस जाते..
अब गली से निकालो तो हाईवे पे कदम पड़ते हैं..
हाईवे पे पैदल चलना मुश्किल है..
मैं आजकल ज्यादतर घर पे ही रहता हूँ..

March 18, 2009

शीशा आईने-सा-अश्वनी

मेरे आईने ने एक अजनबी देखा..मुझको आइना अजनबी लगा अपना..
मेरी आंखों को पहचान ना पायी मेरी आँखें..
हू-बहू अक्स ना बन पाया..जाने क्या हुआ..
दृष्टि धुंधली पड़ी..मेरे आईने पे भाप जम गई..
एक रोकिंग चेयर पे बैठ के मैंने कुछ झूलते सपने देखे..
मेरा कमरा आइनों से भरा था.
हर आईने में मेरा अक्स था.
जिबरिश में बातें करने लगे सब चेहरे मेरे..
कमरे के बाहर से गुजरते लोगों ने कुछ तीखी बहस सी आवाजें सुनी..
मेरे भीतर का कोलाहल..मेरे चेहरे ब्यान करने लगे..
आईने तड़क के टूटे ताड़ ताड़ ताड़..
आइनों के टूटे हुए कांच समेट के झाडू से कचरे के डिब्बे में डाल दिए काम वाली महरी ने..

March 2, 2009

सांड-अश्वनी

एक सांड दौड़ रहा है मेरे भीतर अपने नत्थुने फुलाए..
गुस्से में है..
चीर के चमड़ी आ रहा है बाहर..जैसे ले रहा हो नया जनम..
मेरा जिस्म कोख है उसकी..
और क्रोध है उसका स्थाई भाव..
छिन भिन्न करने को आतुर हर वो व्यवस्था जो व्यवस्थापित की है चंद स्थापित लोगों ने..
पटक के..पछाड़ के..दहाड़ के, चिघाड़ के..
तोड़ देगा वोह यह ग्लोब..
टुकड़े टुकड़े हो चुके मानचित्र से खोजेगा अपना लिए एक भू-खंड..नितांत अपना.
आआआआआआआआआआआआआह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्...
अट्टाहस होंगे..ठहाके लगेंगे..
पर आर्तनाद भी रहेगा जारी.
गुस्सा सांड को सांड बनाता है..गायें अक्सर शांत रहती हैं.

February 26, 2009

बारिश-अश्वनी



आजमाए हुए आसमान से बारिश की उम्मीद रखना इक भुलावा था..
उम्मीद जब की बारिश से तो जम कर भीगे..
बारिश ने कहा
आसमान का कहा जब ना माना तो मिला मुझे तू
पानी थी पहले,तेरे जिस्म को छू के हुई बारिश..
कभी यूँ भी होता है की मिटटी को करती है जिस्म कोई बारिश..
और पानी को करता है बारिश कोई जिस्म...
यह बातें अनुभव से आती हैं..और अनुभव का आना कोई चमत्कार नही..बशर्ते आप खोल कर खड़े हो बाहें बारिश के इंतज़ार में..

February 20, 2009

करवट-अश्वनी

करवट पे करवट
सुकून की तलाश में ॥
बिस्तर के सवाल
जिस्म लाजवाब
बगलें झांके, देखे इधर उधर ॥
अकेली करवट, जैसे एक मक्खी तड़पे जाने को बाहर शीशे के फ्रेम से ॥
एक किताब से शब्द वाष्पित हुए धूप में रखते ही
पानी में रखने से वापिस लौट आए मगर कुछ शब्द हैं मिसिंग ॥
किताब से कुछ शब्द चुरा के हवाओं ने एक ख़त लिखा
एक कश्ती बना के ख़त की बादलों पे चला दी ॥
मक्खी अब भी तड़प रही है ...... करवटें जारी हैं

February 19, 2009

प्रेमवश विवश-अश्वनी

साँस सुनी टिक टिक घड़ी सरकी वक्त बढ़ा आगे आगे
दो घड़ी हो गई बड़ी
वक्त की चाल धीमी धीमी , कछुआ भागा तेज़
पाताल का अजगर करवट ले कर सो गया ढँक कर मुंह
सपने उड़ने लगे हवा में ,पतंग से जा टकराए
एक पतंग कटेगी
बिजली की तारों में अटकी रहती हैं कुछ पतंगे सालों सालों
मेरा कुछ मीठा खाने का मन है
आजकल शादियों का मौसम है ,पटाखे बजाता है कोई
एक पटाखा छिटक के पटाखों के ढेर पे जा बैठा
लगता है दीवाली नज़दीक है
मुझे चुम्बन बहुत मीठे लगते हैं

आज मेरे यार की शादी है-अश्वनी

दूर कहीं बैंड पे बज रहा है नरेंदर चंचल का 'दो घूंट पिला दे साकिया ,बाकी मेरे पे रोड दे ' रोड दे यानी गिरा दे यानी वेस्टेज ऑफ़ मनी । एक पूरी बोतल में से दो घूँट पी के बाकी की कीमती शराब किसी मोटे भद्दे मामे या चाचे पे रोड दी जायेगी या फिर कोई कजिन इस बारिश के दो चार छींटे पा के ख़ुद को धन्य पायेगा । कुछ दीवाने अब्दुल्ले भी आयें हैं जो बेगानी शादी में मदमस्त नाच रहे हैं । सेहरे से लदा फदा दूल्हा सूरत ढकी होने की वजह से सहनीय है , काश कोई हवा इसके सेहरे को ना हटा पाये । एक तरह का मोटापा धारण किए मेक अप की कई परतों के नीचे दबी कुछ औरत नुमा प्रजाति के कुछ स्पेसिमन भी बे ढंगा डांस कर रहे हैं ।'काला सूरज' पिक्चर का यह गाना मरियल सी घोडी को विचलित कर रहा है जो दिल ही दिल में इस सूरज ग्रहण जैसे दुल्हे को अपनी दुल्लात्ति का स्वाद चखाना चाहती है । मैं बहुत दूर बैठा हूँ वहां से जहाँ ये हड़कंप मचा हुआ है ,लेकिन महाभारत के संजय सी दृष्टि प्राप्त हो जाती है अपने आप जब ऐसा कोई गाना कानो में पड़ता है..
मैं चंडीगढ़ में हूँ..

हम्म-अश्वनी

मेरी आँखें चंचल थी कभी , अब नही रहीं
आजकल मैं देखता हूँ हर तरफ़ टकटकी लगा के
खो जाता हूँ बहुत जल्दी और फिर मुझे जल्दी ही नही रहती किसी बात की
ऐसा लगता है की मैं सोच रहा हूँ बहुत कुछ , मगर मेरे हर ख्याल , हर सोच पे कब्ज़ा किसी और का है
कभी कभी बड़ा भला लगता है जब दिन भर की सोच का हासिल हो शून्य , एक खला ,एक इनफिनिटी
ऐसी स्थिति दुर्लभ है और दुर्लभता भली लगती है उस से जो होता आ रहा हो रोज़ रोज़
मुझे जीने दो ऐसे ही ॥

February 18, 2009

जब तक तू ना आएगी-अश्वनी

घर में खाने को बहुत कुछ है खाने जैसा
पीने को मनपसंद पेय और सोने को नरम आरामदायक बिस्तर
पर भूख ही काफी नही कुछ खाने के लिए
प्यास से बढ़ के भी कुछ चाहिए पीने के लिए
नींद से बढ़ के कुछ होना होगा सोने के लिए
मेरी भूख , मेरी प्यास , मेरे आंखों की नींद॥
इक तेरा साथ होगा जब साथ मेरे...
तो साथ साथ चली आएँगी नींद भूख और प्यास॥

दिल ढूँढता है फिर वही-अश्वनी

बड़े शहर में फुर्सत के पल भी जल्दी में होते हैं॥
छोटा शहर जल्दी में भी फुर्सत में होता है॥
मैं एक बड़े शहर से अपेक्षाकृत छोटे शहर में आ के पूरी फुर्सत में हूँ॥
मैं अब और भी छोटे शहर से होते हुए किसी गाँव में जाना चाहता हूँ॥
जहाँ शब्दकोष में जल्दी ,जल्दबाजी जैसे तमाम शब्द अपने आप विलुप्त होते चले गए॥
माँ का गर्भ मेरी ज़िन्दगी का सबसे छोटा गाँव था जहाँ का मैं अकेला बाशिंदा था और पूरी फुर्सत में था॥
अब शायद वैसा सा इक गाँव मिलेगा मुझे उसके दामन में॥
वो जो ले के आई हैं मेरे जीवन में फुर्सत के कुछ रात दिन..

बहाना-अश्वनी

आके कहती है अब वो वक्त बे-वक्त कि कविता लिखो ना
तुम जब लिखते हो तो मैं पूरी होती जाती हूँ..
पर नही जानती वो की काफ़ी दिनों से मैंने कुछ नही लिखा॥
लिखना कुछ होता ही नही असल में॥
यह तो बस है थोड़ा सा यूँही , उसके साथ थोड़ा और वक्त बिताने का बहाना॥
वो बन रही है मेरे जीने का बहाना धीरे धीरे..

आहा आनंद-अश्वनी

मुझे लगता था की मैं खुशी मिलने पे बहुत ज्यादा खुश नही होता..
और ना दुःख पाने पे बहुत अधिक दुखी...
मेरे जीवन का भाव सम है..ऐसा लगता रहा अब तक मुझे॥
पर कुछ खुशियाँ ऐसी मिलीं जो हर्षित कर गयीं कोना कोना॥
दुःख भी महसूस होने लगा भीतर तक॥
कुछ बदल रहा है मेरे साथ..मुझे दिखता रहता है बदलाव
सम हो रहा है असम, विषम ...अनुकूल बने प्रतिकूल।
जो भाव था बरसों से मेरे भीतर और अपना सा लगने लगा था क्योंकि बहुत समय से साथ था॥
वो पराया सा हुआ बहुत जल्दी जल्दी में॥
मज़ा आ गया..वाह

February 17, 2009

मेरे रिक्त स्थान-अश्वनी

मेरे रिक्त स्थान हैं हजारों
हजारों में हजारों स्थान रिक्त हैं ।
रिक्त है मेरे हिया का गान
मेरा हर साज रिक्त है ।
रिक्त है हस्ती मेरी , मेरा वजूद रिक्त है ।
सिमटी सी मेरी हर आहट रिक्त है ।
रिक्त है प्याला मेरा , मेरी मधुशाला रिक्त है ।
रिक्त हो चला है अहम् मेरा , मेरा हर वहम रिक्त है ।
मेरी हथेली रेखाओं से रिक्त है , मेरा लहू शिरायों में रिक्त है ।
रास्ता मेरा मंजिल से रिक्त है , बादल मेरा बारिश से रिक्त है ।
इस कदर रिक्त हुआ हूँ मैं पिछले कुछ सालों में....
मेरे भीतर भी रिक्त है..मेरे बाहर भी रिक्त है ।
मेरा सारे रिक्त रिक्त हैं।
रिक्त स्थान मेरे भरने चली आई वो ना जाने कहाँ से ।
मुझे उसने इस लायक पाया ना जाने कहाँ से ।

सुबह जिसका देखता हूँ चेहरा-अश्वनी

जब रातों को सोया तो तेरा चेहरा साथ था ।
सुबह फिर तेरे चेहरे के चाँद ने मेरे उजाले में रंग भरेतू इस तरह से मेरे हर वक्त में हर वक्त नज़र आने लगी।
जैसे बच्चे
संग रहता है बचपन हर वक्त, जैसे छप्पन संग रहता है पचपन हर वक्त।
जैसे हर आँख रखती है थोड़ा पानी हर वक्त। जैसे कहानी इक रखती है हर जवानी हर वक्त।
जैसे हर तारे में होती है टिम टिम हर वक्त, जैसे हर बारिश में होती है रिम झिम हर वक्त।
जैसे धूप संग लाती है गर्मी हर वक्त , जैसे समझ के साथ आती है नरमी हर वक्त।
माधवी तू मेरी, मीरा भी तू । मेरी उंगली तू , अंगूठी मेरी तू , अंगूठी का हीरा भी तू ।
मेरा घर भी तू ,घर का मेहमान भी तू , मेज़बान भी तू ,मेरे दिल-घर की पहचान भी तू ।
मेरा अक्स तू ,आइना मेरा तू ,हर लम्हा हर वक्त तू , तू ही तू हर जगह हर
सू ।
अब कभी जाना नही कभी ।
अक्स रूठा तो आइना टूट जायेगा ।
दिल-घर की अगर पहचान गई तो इस घर से मेरा दिल ही छूट जायेगा ।

February 9, 2009

ये शहर बॉम्बे-अश्वनी

ये शहर मेरी नस नस में बहे जाता है ।
इसकी सड़कें मेरी दोस्त हैं बचपन की..
सड़कों पे ही जवानी में कदम रखा है..
मैं इसकी इक इक गली से वाकिफ हूँ..
इस शहर के लोग मुझे समझते हैं जितना..
कभी कोई मुझे नही समझा उतना..
बन के इक शोला सीने में इसके भड़क रहा हूँ मैं..
इस शहर में इक धड़कन सा धड़क रहा हूँ मैं..

तेरे जादू का जंगल-अश्वनी

यह तेरे रुखसार पे काला काला सा कुछ लहरा रहा है...
मेरे सुकून को वो घने जंगल में लिए जा रहा है..
तेरे दाएं काँधें पे भी वही काले साए हैं..
जो मुझे फिर से उसी जंगल में ले आयें हैं...
मैं भटक रहा हूँ..मेरा सुकून मिला दे रब्बा..
उसकी गोद मिल जाए एक बार सर रखने को..
फिर चाहे तू उमर भर इस जंगल में सुला दे रब्बा

इक परी-अश्वनी

इक परी,आती रही मेरे खाव्बों में..
मेरी साँस छाती रही उसकी साँसों में ..
मेरे आँगन में दिखता रहा मौसम उसका..
मेरी खिड़की पे बरसा कभी सावन उसका..
मेरी नस नस में उसकी आहों का लहू दौड़ता है..
मेरा हाथ(साया) हर रोज़ उसे उसके घर तक छोड़ता है..
इक दर्द सांझा है हमारे दरमियान.. उसे मुझसे वो मुझे उस से जोड़ता है..

बेपरवाह-अशव्नी

ना मुझे किसी की.. ना किसी को परवाह है मेरी..
पानी में आग लगा दूँ..ना ऐसी चाह है मेरी..
छोटी छोटी आँखें में कुछ छोटे छोटे सपने.
बस आँखें इस चाहत की गवाह हैं मेरी..
भागा हूँ बहुत..अब ठहराना है कुछ पल..
तेरी बाहों की मंजिल में अब पनाह है मेरी..

तू और मैं-अश्वनी

इस शहर में तू इक हमसफ़र है मेरी....
तेरी बाहों में मेरा मौहल्ला है..
तेरी जुल्फों में उसकी गलियाँ हैं..
तेरे आंखों में मिलता है पता मेरे घर का..
उंगलियाँ तेरी खोलती है दरवाजा मेरे कमरे का..
मेरे बिस्तर पे लेटता है पूरा जिस्म तेरा..
तेरे आगोश में मदहोश मेरी दुनिया है.

अभी साँस है बाकी - अभी जान है बाकी - आश्विन

साँसे सूख रही हैं ज़रा सी..पकड़ छूट रही है ज़रा सी..

ज़रा सी आँख धुंधला रही है..ज़रा सी नींद आ रही है..

होश खो रहा हूँ…..

बेहोश नही मदहोश हो रहा हूँ..

मुर्दा मत समझ लेना ..

कुछ पल को ज़रा सा खामोश हो रहा हूँ…

नाज़िम हिक़मत की कविताएं

1.आओ, वह बोली
और रुको, वह बोली
और मुस्काओ, वह बोली
और खपो, वह बोली ।
मैं आया
मैं रुका
मै मुस्काया
मैं खपा ।

2.सुन्दरतम सागर है वह
जिसे देखा नहीं कभी हमने
सुन्दरतम बच्चा
अभी बड़ा नहीं हुआ
सुन्दरतम दिन अपने
वे हैं जिन्हें जिया नहीं हमने अभी
और वे बेपनाह उम्दा बातें, जो सुनाना चाहता हूँ तुम्हें मैं
अभी कही जानी हैं


3.घुटनों के बल झुका देख रहा हूँ धरती
देख रहा हूँ नीली चमकती कोंपलों से भरी शाखाएँ
वसन्त भरी पृथ्वी की तरह हो तुम, मेरी प्रिया !
मैं तुम्हें ताक रहा हूँ ।

चित्त लेटा मैं देखता हूँ आसमान
तुम वसन्त के मानिन्द हो, आसमान के समान
प्रिया मेरी! मैं तुम्हें देख रहा हूँ । गाँव में, रात को सुलगाता हूँ आग मैं, छूता हूँ लपटें
तारों तले दहकती आग की तरह हो तुम
प्रिये! मैं तुम्हें छू रहा हूँ ।

इन्सानों के बीच हूँ, प्यार करता हूँ इन्सानियत को
मुझे भाती है सक्रियता
मुझे रुचते हैं विचार
प्यार करता हूँ मैं अपने संघर्ष को
मेरे संघर्षों के बीच इन्सान हो तुम, मेरी प्रिया!
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ ।



4.मैं क़िताब पढ़ता हूँ
तुम उसमें हो
गीत सुनता हूँ
तुम उसमें हो
खाने बैठा हूँ रोटी
तुम बैठी हो सामने
मैं काम करता हूँ
तुम वहाँ मौज़ूद हो

हालाँकि हाज़िर हो तुम सभी जगह
बात नहीं कर सकती तुम मुझ से
सुन नहीं पाते हम आवाज़ एक-दूजे की


5.वह क्या कर रही होगी अभी
अभी, इस क्षण, अभी !

घर में या बाहर कहीं
काम कर रही है झुकी या खडी हुई है ?
शायद अंगड़ाई ले रही हो--
ओह मेरी प्रिया !
ऐसा करते हुए
कितनी नंगी दिखने लगती हैं उसकी पुष्ट कलाइयाँ

वह क्या कर रही होगी अभी
अभी, इस क्षण, अभी !

शायद सहला रही हो
गोद में ले बिल्ली के बच्चे को ।
शायद टहल रही हो, उठा रही हो अगला क़दम--
आह, वे ख़ूबसूरत पाँव
जो उसे लाते थे मुझ तक उड़ाते हुए
जब-जब मैं डूबा अंधेरे में ।

और सोच रही है क्या वह भी मेरे बारे में ?
क्या मेरे बारे में सोच रही है वह भी इस समय
या कि हैरान-परेशान है वह यह सोच-सोच कर
(छोड़ो, क्या पता)
कि छीमियाँ पकने में इतनी देर क्यों लगती है ?
या कि शायद यह कि इतने लोग क्यों हैं
अब भी इतने दुखी ?

क्या सोच रही होगी वह
अभी, इस क्षण, अभी


6. पेटी से निकालो वह घाघरा

जिसमें मैंने देखा था तुम्हें पहली बार,
और बालों में लगाओ वह कारनेशन
जो तुम्हें भेजा था मैंने जेल से
चाहे जितना बिखरा, मुरझा चुका हो ।
सँवरो और खिली दिखो
आदमकद वसन्त-सी ।

आज के रोज़ दिखना नहीं चाहिए तुम्हें
खोई-खोई ग़मगीन
किसी हाल में !
आज के दिन
तुम्हें निकलना चाहिए सर ऊँचा किए हुए
गर्वोन्नत
गुज़रना ही चाहिए तुम्हें नाज़िम हिक़मत की
पत्नी की गरिमा से भर के ।

हैरॉल्ड पिंटर

मर गया था और ज़िन्दा हूँ मैं
तुमने पकड़ा मेरा हाथ
अंधाधुंध मर गया था मैं
तुमने पकड़ लिया मेरा हाथ

तुमने मेरा मरना देखा
और मेरा जीवन देख लिया

तुम्ही मेरा जीवन थीं
जब मैं मर गया था

तुम्ही मेरा जीवन हो
और इसीलिए मैं जीवित हूँ

पाब्लो नेरूदा

स्त्री देह, सफ़ेद पहाड़ियाँ, उजली रानें
तुम बिल्कुल वैसी दिखती हो जैसी यह दुनिया
समर्पण में लेटी--
मेरी रूखी किसान देह धँसती है तुममें
और धरती की गहराई से लेती एक वंशवृक्षी उछाल ।

अकेला था मैं एक सुरंग की तरह, पक्षी भरते उड़ान मुझ में
रात मुझे जलमग्न कर देती अपने परास्त कर देने वाले हमले से
ख़ुद को बचाने के वास्ते एक हथियार की तरह गढ़ा मैंने तुम्हें,
एक तीर की तरह मेरे धनुष में, एक पत्थर जैसे गुलेल में

गिरता है प्रतिशोध का समय लेकिन, और मैं तुझे प्यार करता हूँ
चिकनी हरी काई की रपटीली त्वचा का, यह ठोस बेचैन जिस्म दुहता हूँ मैं
ओह ! ये गोलक वक्ष के, ओह ! ये कहीं खोई-सी आँखें,
ओह ! ये गुलाब तरुणाई के, ओह ! तुम्हारी आवाज़ धीमी और उदास !
ओ मेरी प्रिया-देह ! मैं तेरी कृपा में बना रहूंगा
मेरी प्यास, मेरी अन्तहीन इच्छाएँ, ये बदलते हुए राजमार्ग !
उदास नदी-तालों से बहती सतत प्यास और पीछे हो लेती थकान,
और यह असीम पीड़ा !

February 8, 2009

ग़ालिब to be continued...

"गा़लिब" बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहें जिसे 


तू ने क़सम मैकशी की खाई है "ग़ालिब"
तेरी क़सम का कुछ ऐतबार नहीं है

हम ने माना के तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम तुम को ख़बर होने तक 


इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई

इशरते कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुजरना है, दवा हो जाना

"ग़ालिब" तुम्हीं कहो कि मिलेगा जवाब क्या
माना कि तुम कहा किये और वो सुना किये 


इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया
दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बेदवा पाया


आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से
कहने जाते तो हैं, पर देखिये क्या कहते हैं

मौत का एक दिन मु'अय्याँ है
नींद क्यों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

अमीर खुसरो

१.
खा गया पी गया
दे गया बुत्ता
ऐ सखि साजन?
ना सखि कुत्ता!

२.
लिपट लिपट के वा के सोई
छाती से छाती लगा के रोई
दांत से दांत बजे तो ताड़ा
ऐ सखि साजन? ना सखि जाड़ा!

३.
रात समय वह मेरे आवे
भोर भये वह घर उठि जावे
यह अचरज है सबसे न्यारा
ऐ सखि साजन? ना सखि तारा!

४.
नंगे पाँव फिरन नहिं देत
पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत
पाँव का चूमा लेत निपूता
ऐ सखि साजन? ना सखि जूता!
५.
ऊंची अटारी पलंग बिछायो
मैं सोई मेरे सिर पर आयो
खुल गई अंखियां भयी आनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि चांद!

६.
जब माँगू तब जल भरि लावे
मेरे मन की तपन बुझावे
मन का भारी तन का छोटा
ऐ सखि साजन? ना सखि लोटा!

७.
वो आवै तो शादी होय
उस बिन दूजा और न कोय
मीठे लागें वा के बोल
ऐ सखि साजन? ना सखि ढोल! 
८.
बेर-बेर सोवतहिं जगावे
ना जागूँ तो काटे खावे
व्याकुल हुई मैं हक्की बक्की
ऐ सखि साजन? ना सखि मक्खी!

९.
अति सुरंग है रंग रंगीले
है गुणवंत बहुत चटकीलो
राम भजन बिन कभी न सोता
ऐ सखि साजन? ना सखि तोता!

१०.
आप हिले और मोहे हिलाए
वा का हिलना मोए मन भाए
हिल हिल के वो हुआ निसंखा
ऐ सखि साजन? ना सखि पंखा!

११.
अर्ध निशा वह आया भौन
सुंदरता बरने कवि कौन
निरखत ही मन भयो अनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि चंद!

१२.
शोभा सदा बढ़ावन हारा
आँखिन से छिन होत न न्यारा
आठ पहर मेरो मनरंजन
ऐ सखि साजन? ना सखि अंजन!

१३.
जीवन सब जग जासों कहै
वा बिनु नेक न धीरज रहै
हरै छिनक में हिय की पीर
ऐ सखि साजन? ना सखि नीर!

१४.
बिन आये सबहीं सुख भूले
आये ते अँग-अँग सब फूले
सीरी भई लगावत छाती
ऐ सखि साजन? ना सखि पाती!

१५.
सगरी रैन छतियां पर राख
रूप रंग सब वा का चाख
भोर भई जब दिया उतार
ऐ सखी साजन? ना सखि हार!
१६.
पड़ी थी मैं अचानक चढ़ आयो
जब उतरयो तो पसीनो आयो
सहम गई नहीं सकी पुकार
ऐ सखि साजन? ना सखि बुखार!

१७.
सेज पड़ी मोरे आंखों आए
डाल सेज मोहे मजा दिखाए
किस से कहूं अब मजा में अपना
ऐ सखि साजन? ना सखि सपना!

१८.
बखत बखत मोए वा की आस
रात दिना ऊ रहत मो पास
मेरे मन को सब करत है काम
ऐ सखि साजन? ना सखि राम!

१९.
सरब सलोना सब गुन नीका
वा बिन सब जग लागे फीका
वा के सर पर होवे कोन
ऐ सखि ‘साजन’ना सखि! ,लोन(नमक)

२०.
सगरी रैन मिही संग जागा
भोर भई तब बिछुड़न लागा
उसके बिछुड़त फाटे हिया’
ए सखि ‘साजन’ ना,सखि! दिया(दीपक) 


खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार।
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।। 

February 7, 2009

जब जब तुने मेरा नाम लिखा - आश्विन

बारिश हुयी..तू छम छम सी चली..कभी इधर डोली..कभी उधर फिसली..तेरी हर आहट पे मुझे ऐसा लगा..जैसे तुने बारिश पे मेरा नाम लिखा..

जब तुने मुड़ के मुझे देखा तो मैंने देखा..तेरी नज़र झुकी..और तू अपने पाँव के अंगूठे से ज़मीन पे कुछ लिखने लगी..मुझे लगा तुने मेरा नाम लिखा..

ओस तेरी खिड़की के कांच पे ठहर गई थी..तुने अपने होंठ गोल कर के ओस पे अपनी साँसे छोड़ी ...कुछ अक्षर उभर आए अचानक...अ ...श ...वि ...न........तेरी साँस साँस मेरा नाम कहने लगी..


तू कल रात अपनी उंगलियाँ फिराती रही बहुत देर तक मेरी हथेली पे..मुझे लगा मेरी किस्मत की लकीरों में तुने अपना नाम लिखा..

Love in the time of recession..Ashwin

गाब्रिएल गार्सिया मर्कुएज़ ने लिखा "लव इन द टाइम ऑफ़ कोलेरा ".क्योंकि जिस ज़माने का मर्कुएज़ ज़िक्र कर रहे हैं उस ज़माने में कोलेरा एक बड़ी भारी समस्या थी.लेकिन आज जो दौर चल रहा है उसमे आर्थिक मंदी एक बड़ी भरी समस्या के रूप में सामने आया है.पर प्यार करने वाले उस दौर में भी लापरवाह थे और इस दौर में भी परवाह नही कर रहे.और करें भी क्यूँ?उनके वश में ना पहले था और ना अब है.चाहे कितने भी कोलेरा या मंदी रुपी बवंडर आ जाएँ.प्यार करने वालों को रोकना मुश्किल ही नही,नामुमकिन है.