January 29, 2012

कुदरत - अश्वनी

बारिश में नहाए बहुत दिन हुए..
तन मन भिगोए बहुत दिन हुए..
सराबोर हो छींक मारे बहुत दिन हुए..
भीगे तन में चाय चुसके बहुत दिन हुए..
जबसे रहने लगी छतरी संग-संग..
बारिश का उड़ गया रंग.. 

आंधी देखे बहुत दिन हुए..
धूलम-धूल हुए बहुत दिन हुए..
नैचुरल पाउडर लगाए बहुत दिन हुए..
कपड़े झाड़े बहुत दिन हुए..
जब से चढ़ गया आँखों पे चश्मा..
आंधी का हुआ खात्मा..

जाड़ा पाला महसूसे बहुत दिन हुए..
हाथ जेबों में घुसाए बहुत दिन हुए..
आग तापे बहुत दिन हुए..
दांत किटकिटाये बहुत दिन हुए..
जब मोटी हो जाए खाल..
जाड़े का कहाँ सवाल..

बारिश आंधी जाड़ा लू हिमपात बसंत पतझड़ 
इनको देखने जानने सुनने महसूसने 
खुद को मिटाना होगा

अपने आप से नज़र हटेगी..
तभी तो कुदरत दिखेगी..

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर...
    सच है..खुद से प्रेम करने वाला किसी से भी प्रेम नहीं कर सकता...
    Narcissistic........

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    1. shukriya Vidya..duniya ko kehte huye khud ko suna raha hota hoon zyadatar..

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  2. अभी तो बसंत आया है ... फूलों से नहाना बेहतर होगा ... मिटा हुआ शक्स ही लिखता है , ये तो आप जानते ही हैं

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    1. rashmi ji..aapki tippanni ke bina kavita adhoori si lagti hai..mita hua shaksh hi likhta hai..kya baat kahi..

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