January 22, 2012

मैंने खुद को देखा-अश्वनी

बंद कमरे में घुसा मैं घरघुसरा अँधेरे में भी देख लेता हूँ आजकल..
बाहर धूप और रोशनी है..इसका इल्म है मुझे..
कल्पना में मैं दरवाज़ा लांघ के बाहर पहुँचता हूँ..
धूप को अपनी मुट्ठी में कैद करता हूँ..
जब जब मैं ऐसा करता हूँ तो..
घर के भीतर मेरी हथेली पता नहीं क्यूँ गरम हो जाती है..
घर के भीतर मैं अकेला हूँ..
मैं घर के बाहर नहीं हूँ..
कल्पना एकमात्र पुल है मेरे और बाहर के बीच..
मैं भीतर बैठा अपने को बाहर देख रहा हूँ..
मैं एक भूखे भिखारी बूढ़े के पास खड़ा हूँ..
मैंने उसके हाथ में चार रोटियाँ और आलू गोभी की सूखी सब्ज़ी रखी..
शाम को खाना खाने रसोई गया तो चार रोटियाँ और आलू गोभी की सब्ज़ी गायब मिली...
भूखे आदमी को गुस्सा ज्यादा आता है..
मैं भूखा था और खूब गुस्से में था..
मुझे लगा कि मुझे खुद को खुद की कल्पना में देखना नहीं चाहिए था..
अगर वास्तविकता में होता तो मैं खुद भूखा रह के किसी दुसरे भूखे का पेट कतई नहीं भरता..
ज़्यादातर ऐसा ही है..हमारा काल्पनिक रूप हमारे वास्तविक रूप से अधिक सुंदर है..
काश यह सब एक कल्पना लोक होता..फिर ना मैं घर के भीतर घरघुसरा बनके पड़ा होता..
ना मुझे अभी गुस्सा आ रहा होता..ना मुझे अपनी भूख इतनी ज़्यादा परेशान करती..
और ना ही कहीं कोई बूढ़ा भूखा भिखारी होता..और ना ही मुझे यह सब लिखना पड़ता..

और यदि आप जो यह सब पढ़के हल्की सी सोच में पड़ गए हैं शायद..
वो क्यूँ पड़ते भला...

8 comments:

  1. Replies
    1. dear patni..ab tumse kya chhupa hai..saara din mujhe jhelti ho..uske baad bhi tumhe meri kaha achha lagta hai to main overwhelmed ho jaata hoon..

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  2. सहजता से लिखा गया गहन लेखन..
    अच्छी रचना!!

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  3. सही है कल्पना हमेशा यथार्थ से अधिक सुंदर हुआ करती है सार्थक पोस्ट ....समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है

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  4. ज़्यादातर ऐसा ही है..हमारा काल्पनिक रूप हमारे वास्तविक रूप से अधिक सुंदर है..

    ....और हमारी संवेदना का रथ अक्सर बिन पहियों का!

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