February 23, 2012

साली ख़ुशी - अश्वनी

जब मुझे मेरे भीतर के भाव समझ नहीं आते
वो समय बहुत कठिन गुज़रता है मुझ पर...

जिसे मैं ग़ुस्सा समझ पी जाता हूँ
उसका स्वाद निराशा सा निकलता है
जिसे मैं निराशा समझ झटक देता हूँ
वो दरअसल कोई दबी कुंठा होती है
या मेरा इन्फीरीऑरिटी काम्प्लेक्स
जो कूबड़ की तरह लदा रहता है पीठ पर
कूबड़ को कोई झटक पाया है आज तक

जिसे मैं ख़ुशी मान झूमता हूँ
वो अक्सर शराब का नशा होता है
पैर थिरकते हैं
चेहरा मुस्कुराता है
दिल एब्सेंट माइंडेड सा डोलता है इधर उधर
दिल शरीक ना हो तो वो ख़ुशी हुई क्या

जिसे मैं अवसाद यानी डिप्रेशन मान दिनों-दिन पड़ा रहता हूँ बिस्तर में
वो किसी की याद निकलती है
अवसाद का रूप बना कर मुझे छलने आई छलना
मेरा सब कुछ लूट ले जाती है लुटेरी
ऐसी याद से तो मेमोरी लॉस भला

जिसे मैं चिंतन समझ के डूबा रहता हूँ सोच में
वो अक्सर होता है मेरा पलायन
सब से कट के अकेले में मुस्कराहट रहती है लबों पर
कभी कोई नगमा भी गुनगुनाने लगता हूँ मैं
दिल दोस्त सा साथ रहता है उन लम्हों
मेरा चिंतन पलायन असल में वेश बदल के आई ख़ुशी है
मेरे लिए बेहतर है कट के रहना

ये भाव भी बड़ा भाव खाते हैं
जैसे होते हैं
वैसे दिखते नहीं
जैसे दिखते हैं
वैसे होते नहीं
पर 
सौ बातों की एक बात

ख़ुशी आती रहे
चाहे हज़ार वेश बदल
सब रूप क़बूल उसके...

3 comments:

  1. पहचान ज़रूर लेना...बहरूपिया खुशी को...
    द्वार खोल ज़रूर देना...

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  2. ये भाव भी बड़ा भाव खाते हैं
    जैसे होते हैं
    वैसे दिखते नहीं
    जैसे दिखते हैं
    वैसे होते नहीं
    पर सौ बातों की एक बात...सौफ़ी सदी सत्य वचन सार्थक रचना...

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  3. अश्विन----ये कविता बहुत अच्छी लगी....धन्यवाद.....!!!

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