March 22, 2012

सिली ओल्ड मी - अश्वनी

फिर वही विचार
वही सोच
वही उधेड़बुन
अपनी पूंछ को मुंह में दबाने को
गोल गोल घूमता जैसे कुत्ता

पता नहीं क्यों 
जंगल बहुत आता है तस्वीर बन
ज़हन में
पर शांत नहीं अब जंगल
जल रहा है धूँ धूँ 
सुलग रहा है सूँ सूँ 
सुबक रहा है ऊँ ऊँ
बारिश चाहिए इसे 
जलन मिटे चुभन घटे रुदन हटे
या फिर ख़ाक हो जाए 
जड़ तक
नामोनिशान मिट जाए

कुछ बरस बाद जब खड़ी हो यहाँ इक टाउनशिप
तो उसके किसी फ्लैट के किसी कमरे में 
बूढ़े दादा दादी नाना नानी 
सुनाए इक जंगल की कहानी
वो जंगल जो जलता था उनके दिल में कभी
वो जंगल जो पलता था उनके दिल में कभी

कहानी सुनके हंसें बच्चे
हा हा हा हा हा 
आपस में करने लगें बातें 
कि
पगला गए हैं दादा दादी
और 
सठिया गए हैं नाना नानी
एकदम बच्चा समझते हैं हमें
कहीं होता है ऐसा जंगल?
जहां पेड़ ही पेड़ हों और बहुत से जानवर
सिली ओल्ड पीपल!!!
हा हा हा हा हा 

जंगल अब भी जल रहा है
सुलग रहा है
सुबक रहा है

नोट- आजकल ये बहुत हो रहा है मेरे साथ..कहीं के लिए निकलता हूँ..कहीं पहुँच जाता हूँ...मैं तो जंगल में सैर को निकला था..पर मैंने ये जंगल कब जला डाला..पता ही नहीं चला..सिली ओल्ड मी!!!

6 comments:

  1. स्वाभाविक है.............
    भटकन जंगल में नहीं तो कहाँ होगी.....
    फिर बन्दर को गुस्सा आता है तो पूँछ में आग लगा कर जला तो डालता है चाहे जंगल या शहर....

    मगर जाने क्यूँ कुत्ते की पूँछ का जिक्र किया आपने!!!!!

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  2. Anu Ji..Kai Kutte apni hi poonchh ko munh se pakadne ki koshish mein gol gol ghoomte dekhein honge aapne..usi image ko dhyaan mein le ke likha maine..wo ghoomna aisa hai jaise ghoomta hun main bhi kabhi..ek hi jagah..gol gol..ek vichaar..ek soch ke saath..

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  3. बहुत अछ्छी कविता.लिखते रहो ,हम आप के साथ है.

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    1. shukriya Raju bhai...buri kavita likhoon..tab bhi rehna saath..

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