March 2, 2012

लाल रंग का फ़ोन - अश्वनी

मेरे पास एक हिंदी किताब है
मैं आँखें बंद कर उसे खोलता हूँ
किसी एक शब्द पे उंगली रखता हूँ
वो शब्द है.....फ़ोन

मैं आज इतना बुझा हूँ कि कुछ लिख के
खुद को जगाना चाहता हूँ
कोई कविता भाव या संवेदना दस्तक नहीं दे रहे
इसलिए आज के लिए मैंने एक खेल चुना है
जो शब्द मेरी उंगली के नीचे आएगा
मैं उसको ले के कुछ लिखूंगा

जब मैंने अपनी ज़िन्दगी का पहला फ़ोन घुमाया था
तो रांग नंबर लगा था
एक निहायत भूखे बच्चे को जैसे ढेर खाना मिल जाए
और वो इतना ठूंस ले कि सांस लेनी मुश्किल हो जाए
उसी तरह एक शादी समारोह में एक फ़ोन पा गया था मैं
एक दम अकेला आमंत्रण देता लाल रंग का फ़ोन
बड़ों को जो करते देखा था..वही करने लगा मैं भी
चोगा कान से लगा
उँगलियों से कुछ भी नंबर घुमाने लगा
अचानक कान में हैलो हैलो की आवाजें आई
और मेरा चेहरा पीला पड़ गया
दिल बूम बॉक्स की तरह बजने लगा
मुझे लगा कि आज पिटाई पक्की
मैं फ़ोन छोड़ के भागा
उसके बाद मैंने पेट दर्द का बहाना बना के
डैडी को जल्दी घर लौटने पे मजबूर किया

वो पेट दर्द मुझे कई दिन तक होता रहा
मुझे डर था चोरी पकड़े जाने का
इसलिए दर्द के पीछे छुपा रहा था मैं अपना डर
इस घटना के काफी सालों बाद हमारे घर पे भी फ़ोन लगा
पर इसमें उंगली फंसा के नंबर घुमाने वाला इंतजाम नहीं था
और इसका रंग भी काला था
काला कौआ कहीं का
पता नहीं क्यों
मैं अपने घर के फ़ोन को कभी पसंद नहीं कर पाया
वो लाल रंग का फ़ोन अब भी मेरे सपनों में आता है  

1 comment:

  1. बचपन में देखा था मैंने लालजी बनिए के वहां एक फोन
    "लालजी फोन वाला" जवाब होता था जब पुछा जाता था लालजी कौन?
    फोन आने से पहले लालजी एक सामान्य दुकानदार था,
    वो भी दांट देता था, जो खाता उधार था,
    फोन आने से लालजी का रुतबा बढते मैंने देखा,
    बाकी और चुकता का अंतर घटते मैंने देखा,
    क्युकी अब लालजी सिर्फ दुकानदार नहीं,कईओ का था राजदार,
    उसके फोन से होता था प्यार,प्यार का व्यापार,व्यापार,प्यार.
    उसके फोन पे हस हस के बाते करने वाली और हमें देखकर मूह फेरने वाली हर लड़की चरित्रहीन होती थी..
    विश्वनीय सूत्र बताते थे की जो सुबह बात करती थी दोपहर में अपना चरित्र खोती थी.
    यह बात अलग है की वो सारे विश्वसनीय सूत्र उन् लड़कियों के हाथ के करारे चांटे खा चुके थे,
    उनमे से एक थी "वोह"...पता नहीं कौन था जिससे वो इतनी सारी बाते करती थी??
    उस ना दिखे,अनजान सामने वाले के लिए बस्ती के हर जवान दिल पे "वोंटेड" का पोस्टर छप चूका था,
    आखिर हर एक लड़का "उसे" पाने कई हजारों जाप जप चूका था.
    अगर वो हम् में से कोई होता..तो सारी बस्ती के लोग "प्रेत भोजन" खा-खा के मर जाते..
    पर ना, वोह कोई बाहरवाला था जो हमारी "उस" को हमसे पहले बिगाड़ रहा था.
    आखिर एक दिन फोन पर हस हस के बात करती विद्या का पीछा किया गया.
    पर,विधा पकड़ी गयी, रंगे हाथो "उसके" साथ,विद्या के नंगे बदन को घूरते हुए "मार डालो इस वेहसी को,उम्र का लिहाज तो करता ,दूकान जला डालो, मूह काला कर दो" चिल्लाते हुए हम सब कब "अरे लड़की ही कुलछिनी है,ईसे ही शौक था तो कोई और क्या करे, अरे बेचारे लालाजी कहा फस गए इस में" बोलने लगे.
    पता ही नहीं चला.... क्यु??
    क्युकी किसी ने नौकरी की एप्लीकेशन में,किसी ने अपनी माशुका को,किसी ने रिश्तेदारों को,किसी ने गाव में अकेली पत्नी को,किसी ने विदेश गए हुए पति को,किसी ने अपने बोस को,किसी ने अपने दोस्त को...लालजी बनिए का ही नंबर दिया हुआ था.

    और फिर पुनः प्रतिष्ठा प्राप्त लालजी,जो पहले फोन आने पर भी पैसे लेता था उसने हमसे अब फोन आने पर पैसे लेना बंध कर दिया...हमारा "इनकमिंग फ्री" करके उसका "आउट-गोइंग" जारी रहा..

    और सालो तक लालजी की दूकान पे "शिलाजीत का कमाल" के किस्से सुनते हुए..हम सब राह देखते रहे..इंटरव्यू के,प्रेमिका के,बॉस के, बछड़ा पैदा होने के,गाय मरने के,..ऐसे वैसे कई तरह के...फोन की.

    पंकज त्रिवेदी.

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