March 6, 2012

कहीं - अश्वनी

इतनी बातें घुमड़ती हैं मन में
मन नहीं रहता तन में
देह छोड़
पकड़ इक अनजान डगर
वो फिरता है मारा मारा


कहीं वो चाहता है दिल देना
कहीं वो चाहता है जान लेना
कहीं उसको चुप्पी भाए
कहीं बिन बोले रहा न जाए
कहीं वो जला दे दुनिया
कहीं बजाता फिरे हरमुनिया
कहीं टकरा जाए चट्टान से
कहीं डर जाए आसमान से
कहीं संसद पे फेंके पत्थर
कहीं पत्थर से खाए ठोकर
कहीं बतिआये इंसान सा
कहीं लगे शमशान सा
कहीं बात करे दिल से
कहीं बात करे मुश्किल से
कहीं सपना देखे जन्नत का
कहीं गाली दे जन्नत को
कहीं प्यार को माने सबकुछ
कहीं प्यार लगे बेकार
कहीं दोस्त बनाता फिरे
कहीं दोस्त हटाता फिरे
कहीं पैसे को पाना चाहे
कहीं ज़िन्दगी को पाना चाहे
कहीं लिखना चाहे कविता
कहीं मिटाना चाहे कविता
कहीं सब कुछ भुलाना चाहे
कहीं भुला न पाए कुछ भी
कहीं जीना चाहे अनन्त
कहीं मिटना चाहे पर्यंत
कहीं चाहे प्रशंसा
कहीं मांगे भर्त्सना
कहीं प्यार करे जी भर
कहीं नफरत सा रहे अमर
कहीं योगी
कहीं भोगी
कहीं सतर्क
कहीं लापरवाह
कहीं सब जान
कहीं अनजान
कहीं उदार
कहीं संकुचित

मन की इतनी उड़ाने हैं

मैं तो बस डोर थामे हूँ
कभी देता हूँ ढ़ील
कभी कस लेता हूँ मुट्ठी
पर मन अपने मन का राजा है
थमी डोर काट देता है
बंधी मुट्ठी देता है खोल

अभी मुझे समझ नहीं आ रहा कि और क्या कहूं 

इतना पढ़के भी आपको समझ नहीं आ रहा 

तो
या तो ये मेरा कसूर है 

या
मैंने ग़लत लोगों के सामने पेश कर दिया अपना
'मन'

1 comment:

  1. ना आपका कसूर.........
    ना हम गलत..................
    सब समझ गए!!!!!!

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