August 5, 2010

खोखल-अश्वनी

पल-पल जमा किये मैंने...
इक दिन भरने के लिए...
दिन भरा-भरा सा ही लगा ऊपर से...
पर जब परतें उधड़ी पलों की तो हाथ आये कुछ खोखल...
पर सारे पल खोखल नहीं थे...खोखल के बीच-बीच भी था कुछ भरा-भरा...
भरे हुओं में कुछ खाली और खाली में कुछ भरे हुए रहते हैं...
मुझे लगता है ये सब आपकी मनःस्थिति पे निर्भर करता है॥
आप क्या कहते हैं..

4 comments:

  1. कहना तो कुछ नहीं चाहता था पर पलों की उधड़ी परतों के बीच में खोखल को देखा तो कहने को मजबूर हो गया। बहुत ही अच्छा लिखा है। मेरे हिसाब से अच्छी कविता वहीं है जिसे पढ़ते समय यह न लगे कि आप कविता पढ़ रहे हैं और जब वो खत्म हो जाए तो आपको एक झटका सा लगे और आप सोचने पर मजबूर हो जाए।

    वाह मजा आ गया ।

    ReplyDelete
  2. shukriya shyam ji..shukriya yashpal bhai...aap logon ko achhi lagi to mujhe bhi maza aa gaya

    ReplyDelete