May 21, 2009

पिघला है कुछ भीतर-अश्वनी

भूरे शीशे से छन कर आती दोपहर शाम सी लगती है
और घर के अन्दर की शाम उसी शीशे से बाहर जा के दोपहर हो जाती है
अब शीशे मौसम को बदल रहे हैं
मेरे दिल का मौसम किसी के ख्याल आने पे या न आने पे बदल जाता है
मेरे दिल का शीशा पिघला दिया किसी ने
मैं जल्द ही अपने घर का शीशा भी तोड़ दूँगा
या कोई आ कर पिघला देगी उस शीशे को भी अपनी एक छुअन से
ऐसा नही की उसके छूने से सिर्फ़ शीशा पिघलता है
मेरा अंहकार भी गल जाता है उसके छूते ही

2 comments:

  1. आप गजल लिखा करिए
    आकी कविता के भाव बिलकुल गजल के जैसे हैं

    आप ने जो लिखा उसका भाव मुझे बहुत अच्छा लगा

    आपका स्वागत है तरही मुशायरे में भाग लेने के लिए सुबीर जी के ब्लॉग सुबीर संवाद सेवा पर
    जहाँ गजल की क्लास चलती है आप वहां जाइए आपको अच्छा लगेगा

    इसे पाने के लिए आप इस पते पर क्लिक कर सकते हैं।
    आप यहाँ जा कर पुरानी पोस्ट पढिये

    वीनस केसरी

    ReplyDelete
  2. bahut khoob...............yash...

    ReplyDelete