March 2, 2009

सांड-अश्वनी

एक सांड दौड़ रहा है मेरे भीतर अपने नत्थुने फुलाए..
गुस्से में है..
चीर के चमड़ी आ रहा है बाहर..जैसे ले रहा हो नया जनम..
मेरा जिस्म कोख है उसकी..
और क्रोध है उसका स्थाई भाव..
छिन भिन्न करने को आतुर हर वो व्यवस्था जो व्यवस्थापित की है चंद स्थापित लोगों ने..
पटक के..पछाड़ के..दहाड़ के, चिघाड़ के..
तोड़ देगा वोह यह ग्लोब..
टुकड़े टुकड़े हो चुके मानचित्र से खोजेगा अपना लिए एक भू-खंड..नितांत अपना.
आआआआआआआआआआआआआह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्...
अट्टाहस होंगे..ठहाके लगेंगे..
पर आर्तनाद भी रहेगा जारी.
गुस्सा सांड को सांड बनाता है..गायें अक्सर शांत रहती हैं.

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