September 25, 2015

उम्र चालीसा

ख़तरनाक पड़ाव है उम्र चालीस
ज़्यादा मांगती है
कम देती है

ना झपटने की ताक़त होती है
ना मांगने की हिम्मत होती है

बहुत ज़ोर लगाना पड़ता है
बहुत शोर मचाना पड़ता है
मन को घंटों मनाना पड़ता है
दिमाग को दाम दंड साम भेद से चुप कराना पड़ता है

कुछ बेवजह-सी गोलियां अलमारी में जगह बना लेती हैं
बची-खुची ईगो को ज़रूरत खा लेती है

बीते हुए दिन सपना लगते हैं
चल रहे दिन पहेली
आने वाले दिनों का भरोसा नहीं होता

अब या तो साली ये अवस्था बदले या साला मैं बदल जाऊं।

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