सोच की सोच बड़ी
उल्टे पलटे जूझे पछाडे और कभी काबू काबू
कदम मिला के साथ कभी और कभी बेकाबू...
घी मिश्री सी घुल जाए मुंह में
कभी कड़वी निम्बोली सी
वाचाल बातूनी रहे बनी कभी
कभी मुंह सिल अनबोली सी...
कभी ये मन का मौसम बदले
बन के एक ठंडी हवा
छाले डाले आत्मा पे कभी
कभी जिस्म को कर दे तपता तवा...
कभी लगे यह मेरी है
कभी मेरी होने में देरी है
कभी मालिक बन बैठे
कभी जीवन भर की चेरी है...
जैसी भी है,जो भी है
बस साथ रहे
ना होगी ये तो मेरी हस्ती क्या
बिन मल्लाह कश्ती क्या
बिन इंसा बस्ती क्या
सोच है तो मस्त रहता हूँ
बिना सोच के मस्ती क्या...
उल्टे पलटे जूझे पछाडे और कभी काबू काबू
कदम मिला के साथ कभी और कभी बेकाबू...
घी मिश्री सी घुल जाए मुंह में
कभी कड़वी निम्बोली सी
वाचाल बातूनी रहे बनी कभी
कभी मुंह सिल अनबोली सी...
कभी ये मन का मौसम बदले
बन के एक ठंडी हवा
छाले डाले आत्मा पे कभी
कभी जिस्म को कर दे तपता तवा...
कभी लगे यह मेरी है
कभी मेरी होने में देरी है
कभी मालिक बन बैठे
कभी जीवन भर की चेरी है...
जैसी भी है,जो भी है
बस साथ रहे
ना होगी ये तो मेरी हस्ती क्या
बिन मल्लाह कश्ती क्या
बिन इंसा बस्ती क्या
सोच है तो मस्त रहता हूँ
बिना सोच के मस्ती क्या...
bhaavpoorn kavita..Ashwin ji kuchh google search kar rahi thi..aur itefaq se aap ke blog par pahunchi.
ReplyDeleteachchha hai aap ka blog.
abhaar
shukriya Alpana ji..
ReplyDeletekya baaaaat v gd.............yash....
ReplyDelete